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एक मतला एक शेर

एक मतला एक शेर हम कहानी तुम्हें सुनाते क्या नींद से यकबयक जगाते क्या राहवर के यहां दिवाली थी शहर में दीप जगमगाते क्या

GHAZAL=उम्र भर यार से बस हाथ छुड़ाया न गया

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                     ग़ज़ल                        08 GHAZAL=उम्र भर यार से बस हाथ छुड़ाया न गया उम्र भर यार से बस हाथ छुड़ाया न गया इसलिये और कहीं पे जी लगाया न गया पेट की आग बुझाने के लिये  हम से कभी भूल कर शाम को भी रात बताया न गया काम तो हम  भी  बुरे  बक़्त  में    उनके आये बस कभी हम से बो अहसान जताया न गया दिल किसी गुल की तरह आप मसल कर न कहें हम से तो कोई किसी तौर सताया न गया

GHAZAL=दुनिया के किसी दर्द से दो चार नहीं हूं

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                    ग़ज़ल                      07 दुनिया के किसी दर्द से दो चार नहीं हूं दुनिया के किसी दर्द से दो चार नहीं हूं जब से मैं किसी तौर तेरा यार नहीं हूं इन्सान हूं इन्सान से बरताब भी बरतो गुज़री हुई तारीख़ का अख़बार नहीं हूं मख़्लूक़ सताने से मुझे बाज़ जरा आ दरबार में फ़रियाद से लाचार नहीं हूं इस जीस्त की ख़ातिर तेरा दीदार ग़िज़ा है सूरत का तलबगार हूं बीमार नहीं हूं

GHAZAL=मुफ़्त में क्या किया हासिल है तजूर्बा हमने

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                  ग़ज़ल   मुफ़्त में क्या किया हासिल है तजूर्बा हमने                       ग़ज़ल                        06 मुफ़्त में क्या! किया हासिल है तजुर्बा हमने खूब लोगो पे लुटाया है असासा हमने झेल हम तब लें तेरे खार बिना शिकबा हम जब तेरे पास रखा रहन हो रूतबा हमने यक ब यक ही बअसर संगदिलों तक में भी लौ उठी जब कभी साज उठाया हमने तारे गिन गिन के शवेहिज्रां गुज़ारी तन्हा दिलरूबा देख लिया तेरा भी वादा हमने

GHAZAL=अपनी बैचेनियों में किसे मैं पुकारता।

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                  ग़ज़ल                     05 GHAZAL= अपनी बैचेनियों में किसे मैं पुकारता। अपनी बैचेनियों में किसे मैं पुकारता हां इसलिए मैं तुमसे रहा खेल हारता गर बक़्त साथ होता बड़े इत्मिनान से  मैं मुन्तशिर ये केश तुम्हारे संवारता रंजीदगी गले में पहन हार की तरह  गुज़रा हूं ज़िन्दगी से जवानी गुजारता अंजाम से बेफ़िक्र मेरा इश्क़ लो मुझे आंखों की झील में है डुबोता उभारता मुन्तशिर= बिखरी हुई रंजीदगी= दुख

GHAZAL-बे सबब हाजतें ठीक लगतीं नहीं

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                  ग़ज़ल                     04   बे सबब हाजतें ठीक लगतीं नहीं          बे सबब हाजतें ठीक लगतीं नहीं बेहमीयत लतें ठीक लगतीं नहीं कुछ मरासिम बतन से भी यारो रखो मुल्क से फ़ुरकतें ठीक लगतीं नहीं क्यों है हर शख्स दिलगीर इस शहर में लोगो की तबियतें ठीक लगतीं नहीं दिल भुलाया उसे जो हसीं ख़ास थी बस यही आदतें ठीक लगतीं नहीं हमनशीं तेरी ये बेहया बेवफ़ा  बेमजा चाहतें ठीक लगतीं नहीं बेहमीयत=निर्लज्ज मरासिस=संबंध हाजत=जरूरत

GHAZAL-जहां की ऐसी मुझे चाहिये बहार नहीं।

             ग़ज़ल                03  जहां की ऐसी मुझे चाहिये बहार नहीं। जहां की ऐसी मुझे चाहिये बहार नहीं किसी भी तौर मिले जिससे जब करार नहीं रगो की कैद के भीतर लहू रहे न अबस इसी बजह से चखी नान दाग़दार नहीं सुरूर जीत का है लाज़िमी उन्हीं के लिये नबर्द में जो कभी थे फ़रेबकार नहीं निकल सके तो निकालूं बदन से लहजे में अक़ूबते ग़मे हस्ती है कोई खार नहीं